शायद ज़िन्दगी के वो पल सबसे अच्छे होते हैं जब हम आने वाले कल या गुज़रे हुए कल के बारे में नहीं सोचते.जब हम अपनी ज़िन्दगी को एक्सपेक्टेशंस के तराज़ू पर नहीं तोलते. हम यह नहीं सोचते की आने वाला कल हमें क्या दे जायेगा या हमसे क्या ले जायेगा. या यह गुज़रा हुआ कल हमें कहाँ ले आया. हम बस आज में जीते हैं. शायद परम सुख इसी को कहते हैं जब हम सुख और दुःख से अनिभिज्ञ होकर सिर्फ आज में जीते हैं. हम अपना निर्धारित कर्म तो करते हैं परन्तु फल से लगाव नहीं रखते हैं.
आज दिल्ली के कुछ मटमैले आसमान को देखने पर यह ख्याल आया. छत पर कुर्सी लगा आँखें मूंदे बैठी ही थी.
फिर नज़र कुछ बड़े कुछ छोटे मकानों की छतों और पानी की टंकियों पर पड़ी. अनगिनत कबूतरो ने ऐसा जाल बिछाया है की कौए, मैना, चिड़िया तो जाने कहाँ लुप्त हो गए .
तभी नज़र लिली पर पड़ी. उसका नाम तो अर्चना है पर वो खुद को लिली कहती है. जब किसी को छत पर देखती है तो कहती है मेरा नाम लिली है. शायद किसी टीवी ड्रामा या फिल्म में यह नाम सुना होगा उसने. और दूसरी छत पर एक बूढी आंटी अपने बालों पर मेहंदीलागये धुप में बैठी थी. लिली उन्हें बहुत ध्यानसे देख रह थी. लिली मुझ से उम्र में लगभग पांच वर्ष बढ़ी होगी. जब वो बाहरवीं कक्षा में थी तब वह आईएएस अफसर बनना चाहती थी. अभी आईएएस का इम्तेहान दिया भी नहीं था की किसी रोग के कारण उसका दिमागी संतुलन कुछ बिगड़ गया. माँ बाप पर तो जैसे बिजली गिर गयी. एक तो जवान लड़की, ऊपर से दिमागी रूप से बीमार. अब कौन करेगा उससे शादी? हम मिडिल क्लास फैमिलीज़ में शादी का रोग सबसे बड़ा रोग मन जाता है. बहुत इलाज करवाया बेचारी का. डॉक्टर, नीम हक़ीम से लेकर बालाजी, सब फेल हो गए गए परन्तु बेचारी कभी ठीक न हो पाई. सभी डॉक्टर बोले, की यह बीमारी जेनेटिक है. पहले कहीं किसी को यह बीमारी रही होगी. और अब यह बीमारी उसको पास ऑन हो गयी है. बिलकुल उसी तरह जिस तरह कहीं न कहीं दुल्हन बनने का अरमान उसके दिलो दिमाग में आ गया. बेचारी दिन भर सर पर लाल दुपट्टा लिए छत पर कड़ी हो हिंदी फिल्मों के फूहड़ गीत गाती रहती है या कभी कहती है की यह लिल्ली आज भी अपने जॉनी का इंतज़ार कर रही है.
तभी शायद कुछ सुनाई पड़ा की वो उस बूढी आंटी से कुछ कह रही थी. ध्यान से सुना तो लगा कह रही थी की यह मेहँदी मुझे भी लगा दो. मेरे भी कुछ बाल सफ़ेद हो रहे है. अगर बूढी हो गयी तो जॉनी मुझे लेने कभी नहीं आएगा. वो आंटी सर पर पॉलिथीन लपेट मुँह दूसरी तरफ कर लेट गयीं. शायद सोच रहीं होंगी की उनका जॉनी तो पिछले लगभग चालीस वर्ष पहले उन्हें छोड़ कर चला गया था. तब आंटी जवान थी . स्कूल में टीचर थी. पति ज़्यादा पैसे कमाने के लिए विदेश गया था. शायद लन्दन गया था. कहते हैं उसने वहां किसी गोरी मेम से शादी कर ली है. वहीँ रहता है. आंटी बेचारी तब से जीवन अकेले काट रहीं है. औलाद तो कोई है नहीं. रिश्तेदार भी नहीं कोई मिलने आता. दूसरी शादी भी नहीं की. शायद मन में कोई आस हो की वो ही वापस आ जाये. पर न वो कभी आया न कभी उसकी चिट्ठी. कौन जाने वो विदेश गया भी या नहीं.
तभी मेरी बगल वाली छत पर वर्मा अंकल जी पौधों को पानी देने आये. उनकी पत्नी तो सरकारी नौकरी करती हैं. अकाउंटेंट है किसी मिनिस्ट्री में शायद. और अंकल जी रिटायरमेंट के बाद घर सँभालते हैं. वो अंकल बेचारे सबसे कहते फिरते हैं की मैं किसी काम को मर्द का काम और औरत का काम नहीं समझता. काम तो काम होता है. पर मज़ाल है किसी औरत को बिना टेढ़ी नज़रों से देखे बिना रह जाएँ. लिली को देख उल जलूल इशारे किये बिना उनका दिल न मानता. उसके सुर में सुर मिलाकर धीरे धीरे गाने गाते. पर शायद समाज से डरते थे या लिली के पिता से जो लिली की निगरानी करने उसके छत पर पीछे पीछे आते. कोई भी पिता अपने बेटी के तरफ अपने फ़र्ज़ से कैसे पीठ मोड़ ले?
तभी दाएं तरफ वाली छत पर सरला जो उस घर में काम करती है, दौड़ती हुई आयी. आज फिर शायद ऊपर बने गुसारखाने का नलका खुला छोड़ गयी होगी. टंकी का सारा पानी बह गया होगा. छत पर तालाब बना था, इसिलए शायद उसका पाँव फिसल गया. वो धड़ाम से फिसली और चिल्लाई. बगल वाले अंकल जी, दो छत कूद कर आये और उसको धीरे धीरे उठाकर सीढ़ी तक पहुँचाया.
मैं यह सब देख ही रही थी, की एक बिल्ली गमले के पीछे से मेरे सामने बैठे कबूतर को ज़ोर से झपट्टा मार के ले गयी.
हम सभी शायद त्रस्त हैं इस बढ़ते हुए दिल्ली के प्रदुषण से, शायद कबूतरों की बढ़ती आबादी से या शायद खुदे से. और इन सबसे मुक्ति शायद आखें मूँद लेने के बाद ही मिलेगी.