एक थी मेहरुनिसा

आज शाम को दफ्तर से जल्दी निकलना था. रोज़ रोज़ झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता था. पर क्या करती? पंडित जे ने कहा था की रोज़ शाम को चार बजे स्पेशल पूजा होगी उन महिलाओं  के लिया जिनका विवाह नहीं हो पा रहा है.  अब शादी तो करनी ही थी. शादी  नहीं हुई तो सब यहीं सोचेंगे के मुझमें ही कोई कमी होगी. एक तो मेरा बकबकिया स्वभाव ऊपर से काला रंग और उसके ऊपर से है यह मोटापा। अगर कमी थी भी तो किसी को कहने का मौका क्यों दिया जाए। और माँ -बाप भी कब तक ३० वर्ष की लड़की को घर पर बैठा कर रखें. वकील हुई तो क्या हुआ, हूँ तो औरत ज़ात ही न.

जैसे ही तीन बजे , जल्दी से अपना लैपटॉप बैग में डाला और तुरंत कोई बेतुका सा झूठ सोचा और दफ्तर से भागी. जल्दी जल्दी सीढ़ियां उतर रही थी की पैर फिसल गया. आज साड़ी पहनी थी उसके साथ तीन इंच की हील. अब साड़ी १४ अगस्त को नहीं पहनी तो कब पहनी? आखिर अपने देश की बात है. हम शहरी मिडिल क्लास लोग सिर्फ दो ही दिन तो देश भक्त बनते हैं.  एक छब्बीस जनवरी और एक पंद्रह अगस्त को. बस यूट्यूब पर कुछ गाने सुन लिए और हम हो गए देश भक्त.

खैर अब पाँव मुड़ गया था. यह हील और साड़ी का भी अजब रिश्ता है. न पहनो तो ग्रेस नहीं आती और पहन लो तो चला नहीं जाता. अब मंदिर जाने के लिए भी झूठ बोलै था तो ऊपर वाले ने सजा तो देनी ही थी. वैसे शादी भी किसी सजा से काम थोड़े ही है. आजीवन कारावास है. और यह कवी और फ़िल्मी लोग इसको सात जन्मो का बंधन मानते हैं. बताओ अब सात जन्मो के बंधन में कौन बंधना चाहता है?  मैं तो स्वछंद हवा में उड़ना चाहती थी पर समाज मुझ जैसे लोगों को बेड़ियाँ बाँधने में हमेशा उत्सुक रहता है.

अब इतने तेज़ दर्द में क्या हवा में उड़ूँगी? चुपचाप दर्द में कहते हुए सीधा मंदिर का ऑटो लिया. मंदिर के सामने उतरी, तभी पीछे से आवाज़ आयी, क्यों लगंड़ा रही हो? क्या हो गया?  सामने हीरु काकी खड़ी थी. दुनिया में हम दो ही महिलाएं है जो इतना बोलती होंगी।  यह कहना सही होगा की कभी कभी ही चुप होती होंगी. काकी मंदिर के बाहर फूल, अगरबत्ती  आदि बेचा करती थी तथा मंदिर के आँगन को साफ़ किया करती थी. मंदिर के अंदिर तो मैंने उन्हें कभी नहीं देखा. हाँ, पानी वो शिवलिंग में जल डालने वाले नल से भरा करती थी.

हाथ में टूटी हुई सैंडिल देख कर समझ गयी की पाँव में मोच आ गयी थी. मंदिर के पीछे का छोटा सा कमरा उन्हें रहने के लिए दिया गया था.

अकेली रहती थी , शसयद तीस बरसो से भी ज़्यादा. मैंने तो हमेशा से ही उनको बूढी देखा था. शायद कम उम्र में उनके बाल सफ़ेद हो गए थे। और तब हेयर कलर करने का फैशन भी कहाँ था. अब तो हर कोई ही रंगा सियार है. सब काले बालों को सर पर सजाये घूमते हैँ।  अब दर्द और बढ़ गया था और पाँव में सूजन आ गयी थी.

मुझे काकी अपने कमरे में ले गयी. बोलीं चल आ तुझे कोई दवा लगा गउओं. मैं उनके कमरे में गयी. शायद इतने बरसों में पहली बार उनका कमरा देखा. एक चारपाई , कुरसी और एक खट खट करता पंखा और कुछ संदूक वो भी लकड़ के.  एक बड़े से संदूक़ से उन्होंने एक काली शीशी निकाली। मैं उस मिटटी से सनी हुई शीशी को देख कर तुरंत बोल पड़ी, काकी मैं ठीक हूँ।  मुझे दवाई की कोई ज़रूरत नहीं है.  घर जाकर मूव लगा लूंगी. हम शहरी लोगों को पुरानी  चीज़ो से बहुत डर लगता है. जैसे कोई भूत चिपका होता है उनके साथ. 

पता नहीं उस काली शीशी में क्या था? कहीं मुझे कोई इन्फेक्शन ही न हो जाये? हम मरने से भी बहुत डरते है. जैसे हम ही अनोखे हैं जो मरेंगे!

वो बोली यह मैंने खुद बनाई है।  अभी दस मिनट में सब दर्द गायब हो जायेगा.

अरे, फिर तो यह ज़रूर कोई जड़ी बूटी होगी. भाई अब यह नीम हाकिम लोग तो वैसे ही फ्रॉड होते हैं. इस चक्क्र में तो मैं बिलकुल नहीं पड़ती. पर काकी कहाँ मैंने वाली थी. पास आकर लगाने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी, मैं उठकर खड़ी हो गयी. पर उनके चेहरे की मायूसी देख कर कुछ घबरा कर फिर बैठ गयी. तभी मेरी नज़र उनके खुले हुए बड़े से संदूक पर पड़ी जिसे देख कर मैं दंग रह गयी. वो किताबों से भरी पड़ी थी.  शायद बांग्ला भाषा में थी. अब तो मुझसे रुका न गया. एक साधारण से दिखने वाली बुढ़िया के पास इतनी किताबें ? रद्दी जमा करती है क्या?

कुछ सकुचा कर उन्होंने संदूक बंद कर दिया. मैं जब पास गयी तो देखा उस संदूक में किताबें ही नहीं बल्कि रेशम की बेहद्द कीमती साड़ियां जैसे बालूचरी, और टस्सर। 

अब मेरे मन की उत्सुकता और भी बढ़ गयी. कौन है काकी ? कब से रहती है? यहाँ क्यों रहती है? कहीं चोरी तो नहीं करती?

मैंने कुछ सख्ती से पूछा, यह सब क्या है? कहाँ से लायी हो यह सब? इतनी महंगी साड़ीयां? किसकी है यह सब? और यह किताबें?

काकी के चेहरे का रंग उड़ गया. बेचारी ऐसे घबरा गयी कि पूछो मत. मेरा सीना और चौड़ा हो गया. किसी और का गलत काम पकड़ने में मज़ा ही कुछ और है।

तभी वो धीरे से बोली यह सब मेरा है. मैंने फिर  पुछा यह सब कहाँ से आया? किसने दी तुमको यह सब साड़ियां?

वो बोली, बैठ सब बताती हुओं.  उन्होंने दरवाज़ा बंद किया.

फिर धीरे से बोलीं. यह सब मेरा हैं. मैंने बांग्ला साहित्य कॉलेज में पढ़ा है. मैं मुर्शिदाबाद से  हूँ . वहां सब बांग्ला ही पड़ते थे.

मैंने पुछा की यहाँ कैसे आयी? बांग्ला पढ़ी तो कोई नौकरी क्यों नहीं करती? मंदिर में क्यों रहती हो?

मेरे साथ कॉलेज में एक लड़का पड़ता था।  हम दोनों एक ही गाँव में रहते थे. साथ साथ कॉलेज जाते. बस साथ साथ रहते कब हम एक दूसरे के हो गए पता ही नहीं चला. तब मुझे प्यार व्यार का नहीं मालूम था. बस इतना पता था कि बस वो ही अच्छा लगता है सबसे अच्छा।  उसी के साथ रहने का मन करता।

फिर क्या हुआ?

उसका नाम महेंद्र था और मेरा मेहरुनिसा। बस यही मेरा कसूर था. घर वाले शादी के लिए बिलकुल तैयार न हुए. सब लोगों ने मिलकर हमें गाँव से निकल दिया.

सिर्फ मेरी माँ थी जिसने मुझे समझा. पर वो भी बेचारी क्या कर सकती थी? अकेली औरत कैसे पूरे गाँव के सामने खड़ी होती?

पर हम दोनों क्या करते?  कहाँ जाते? कुछ समझ नहीं आया.

महेंद्र बांग्ला तो जनता था और थोड़ी बहुत पंडिताई. हम दोनों दिल्ली आ गए.

बांग्ला पढ़ कर नौकरी तो मिलती नहीं बस उसने पंडिताई का काम शुरू कर दिया. और उसे मंदिर में  पुजारी का काम मिल गया.

फिर क्या हुआ? महेंद्र कहाँ है? तुम उसके साथ क्यों नहीं रहती?

एक मुसलमानी के साथ कौन उसे काम देता वो भी पंडिताई की. उसने शादी कर ली अपने जात में. मुझे से बोला तू फिक्र मत कर. मुझे कुछ पैसे जमा कर लेने  दे फिर तुझे भी ले जाऊंगा. कहता था दोनों को रखूंगा अलग अलग घर में.

पर मैं तब तक कहाँ रहती? क्या करती? सिर्फ बांग्ला जानती थी. फिर महेंद्र ने मुझे किसी से कहकर मंदिर में यहाँ सफाई का और बगीचे सँभालने का काम दिलवा दिया. मुझे जो पैसे मिलते हैं मैं उससे किताबें खरीद लेती हूँ।  और मेरा खर्चा ही क्या है. मंदिर में खाने पीने को मिल जा जाता है. कुछ पैसे फूल, दिया बेच कर कमा लेती हूँ।  बस जीवन काट लिया.

और वो साड़ी? वो कहाँ से आयी?

वो महेन्द्र शुरू शुरू में लाया था.

और अब कहाँ है वो?

बस अब वो बहुत बड़े मंदिर का पुजारी है।  तीन बच्चे हैं उसके।  कभी कभी आता था पहले. अब नहीं आता. सुना है अब तो टीवी पर भी आता है. मैंने ही उसको दस बरस पहले मना किया था.  अब वो बहुत पहुँच  वाला हो गया है. बहुत बड़ा मंदिर है उसका. बहुत बड़ा. गाडी भी.

मुझे उसका पता बताओ, मैंने गुस्से में कहा।  ऐसे कैसे छोड़ कर चला गया? तुम घर वापिस क्यों नहीं गयी? यहाँ अकेले क्यों रहती हो?

कहाँ जाऊं? माँ तो कब की चली गयी. चाचा ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया. और अब वहां क्या रखा है मेरे लिये?

तो अब क्या यहीं रहोगी?

हाँ…महेंद्र जब तक है तब तक शायद यह कमरा कोई नहीं खाली करने को कहेगा.

और जब महेंद्र न रहा तब?

तब कौन जाने मैं रहूंगी या नहीं?

वो तुम्हें साथ नहीं ले जायेगा?

अरे, जब जवानी कटी गयी तो बुढ़ापे में क्या ले जाएगा ?

अब तो अपने बच्चों के ब्याह करेगा,  मुझ बूढी को कहाँ संभालेगा।

पर यह सब किसी से कहना मत. मेरा इस मंदिर के सिवा और कोई ठिकाना नहीं है. अब इस उम्र में दर दर की ठोकरें नहीं खाना चाहती.

मेरे पैर का दर्द कहाँ गायब हो गया, दस मिनट में पता ही नहीं चला.

Image credit: https://pixabay.com/en/woman-old-indian-india-kerala-262498/

5 thoughts on “एक थी मेहरुनिसा

  1. भावनाओं से भरी हुईं कहानी है। मैं दो पल के लिए शिव मंदिर में हि खो गया था। बहुत हि बेहतरीन लिखा है आपने।

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