मिताली मर गयी
मिताली मर गयी। अभी पिछले महीने ही तो मिली थी. मेट्रो में. जब मैं ऑफिस से घर वापस आ रही थी. तभी स्टेशन पर मुलाकात हुई. मेट्रो इतनी भरी हुई थी. ऐसा लग रहा था की पूरी दिल्ली ही मेट्रो से सफर कर रही हो. सब को जल्दी थी कहीं पहुँचने की। कहाँ यह शायद किसी को न पता था. या शायद जानने के लिए समय ह न था. सब जल्दी में जो थे.
उसने मुझे भीड़ में नाम देकर पुकारा. कितना भी शोर क्यों न हो, अपना नाम तो सुनाई दे ही जाता है. कभी कभी कोई ही तो कोई अपना पुकारता है.
बसंत पंचमी का दिन था. हम दोनों ने पीले रंग की साड़ी पहनी थी. उसकी हलकी पीले रंग की लखनवी एम्ब्रायडरी की साड़ी और मेरी सूरजमुखी रंग की कोयमबटूर कॉटन साड़ी. मिताली से मिलती जुलती साड़ी मेरे पास भी थी. शायद उसकी साड़ी से कहीं ज़्यादा सुंदर पर जो कभी पहनी नहीं थी और शायद कभी न पहनू। पर फिर भी बहुत सहेज कर संदूक में सबसे नीचे रखी थी।
जब उसने फिर से नाम पुकारा तो सहसा नज़र उसके चेहरे की तरफ गयी. वही गोल गोल आँखें, वहीँ मनमोहक मुस्कान और वहीँ घने काले बाल. चेहरे पर कहीं भी ज़िन्दगी के उबड़ खाबड़ रास्तों का कहीं कोई निशान न था. कैसे खुश रहती है वो इतना?
तभी हाथ पकड़ कर बोली, “कितने दिनों के बाद देखा तुझे , वो भी मेट्रो में. मैंने तो तेरी साड़ी देख कर ही पहचान लिया था. यह वही है न जो करोल बाग से ली थी.
मुझे याद है अब तक. ऐसे क्या देख रही है? क्या भूल गयी मुझे?
मैं मिताली को कैसे भूल सकती हूँ? सातवीं कक्षा में जब मैंने स्कूल बदला था तो वो ही सबसे पहले मेरी दोस्त बनी थी. दोस्ती होना तब ज़्यादा मुश्किल नहीं होता था। जो साथ आ कर बैठ जाए, वही दोस्त होता था. तब इतने ईगो इश्यूज तो नहीं होते थे.
हम रोज़ साथ ही स्कूल जाते थे और साथ ही वापिस आते थे. बात करते करते रास्ता पैदल कैसे कट जाता पता ही नहीं चलता. न ही कभी गर्मी लगती और न ही कभी बारिश से कोई दिक्कत होती. अब तो सर्दी भी दिक्कत देती है, गर्मी भी और बारिश भी. हर मौसम सिर्फ नयी परेशानियों के साथ ही आता है और उसके जाते जाते उन परेशानियों को सहने की आदत हो जाती है.
यूँ तो जीवन का दूसरा नाम ही परेशानी है.
वो कहते हैं ना , ‘दिस टू शैल पास’. पर कब यह किसी को नहीं पता. यह तो केवल वक़्त ही जनता है या वो जिसने यह दुनिया बनाई है.
मिताली की उम्र पैतालीस की है और मेरी उससे एक साल काम. इतनी पुरानी थी हमारी दोस्ती. हमने ज़िन्दगी के कई उतार चढ़ाव एक साथ देखे.
मिताली जब बीस इक्कीस बरस की थी तभी उसकी शादी हो गयी. सुन्दर तो थी ही, एक बिज़नेस फॅमिली में उसकी शादी हो गयी. और मैं अपने कॉलेज की पढाई में व्यस्त हो गयी. बी.ऐ के बाद म.ऐ की पढाई जो करनी थी. शादी में मुझे उस उम्र में कुछ ख़ास दिलचस्बी नहीं थी. मुझे अपना करियर जो बनाना था.
लेकिन मितली का वैवाहिक जीवन कुछ ज़्यादा दिन नहीं चल पाया. शादी के बाद पता चला की उसके गर्भाशय में रसोली थी. ऑपरेशन कर उसका गर्भाशय को निकलना पड़ा। बस तब क्या था, जैसे ही डॉक्टर ने बताया की वह अब कभी मां नहीं बन पायेगी, उसकी पति ने उसे मायके भिजवा दिया. और कुछ दिनों के बाद तलाक के कागज़ भी आ गए. जैसे की हर घर में होता है, उसकी माँ बहुत रोइ पर अब क्या किया जा सकता था. जब दोष अपनी बेटी में ही निकले। हमारे समाज में मातृत्व को भगवान के साथ एक दिव्य सांझेदारी समझा जाता है. भगवान के बाद इस कुदरत को चलाने का काम महिला का है.
महिला का सबसे प्रमुख कार्य बच्चा जनना ही है. अगर वह किसी कारनवश माँ नहीं बन सकती तो वह अधूरी है. वह अपने में एक सम्पूर्ण इंसान है, इसका किसी कवी या किसी दार्शनिक ने कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया है. अगर किया भी है तो समाज में ज़्यादा लोकप्रिय नहीं है.
हर देवी को हमारे समाज में माँ के रूप में ही पूजा जाता है. महिला है तो उसका माँ होना स्वाभाविक है. महाविद्याओं को भी समाज में वो स्थान नहीं प्राप्त हुआ जो पारवती या संतोषी देवी को हुआ है.
मिताली ने अपने तलाक़ को कोई विरोध नहीं किया. चुपचाप कागज़ों पर दस्तख़त कर भिजवा दिए. वैसे तो समय बदल रहा है, लोग बच्चा अडॉप्ट करने के लिया आगे बढ़रहे है परन्तु कोशिश यही रहती किसी तरह आधुनिक मेडिकल उपचार द्वारा अपना ही बच्चा हो.
मिताली ने तलाक़ के बाद अपनी पढाई फिर से शुरू की. म.बी.ऐ ख़तम करते ही उसकी नौकरी एक बैंक में लग गयी.
दूसरी शादी होने की कोई उम्मीद तो अब थी नहीं क्यूंकि बात बहुत दूर तक फैल गयी थी की मितअली अब कभी माँ नहीं बन सकती. मितली से सब लोग हमदर्दी जताते और सब किस्मत का दोष है कह कर सान्तवना देते.
मितअली इस बारे में किसी से कुछ बात नहीं करती. मुझसे भी नहीं. मैंने भी कभी इस बारे में कभी बात नहीं की. इसके तीन कारण थे, पहला, मुझे नहीं लगता की माँ बनना कोई दैविक कार्य है. हम औरतों को कुदरत गर्भाशय के साथ पैदा करती है. वह भी हमारे जिस्म का अंग है ऐसे दिल या गुर्दा. माँ बनना एक स्वैछिक कार्य है. यह एक महिला की इच्छा पर निर्भर होना चाहिए की वो माँ बनना चाहती है या नहीं. और दूसरा कारण, आज हमारे समाज में जब जनसख्या इतनी बढ़ रही है, और और बच्चों को इस धरती पर क्यूँ लाया जाए ? अगर मातृत्व की ीचा जागृत हुई तो क्यों न किसी अनाथ बच्चे को अपना कर , इस इच्छा को पूरी लिया जाए.
तीसरा और सबसे मुख्या कारण मेरी नज़रों में यह है कि यह संसार एक दुःख से भड़कर और कुछ नहीं है और जैसा की उपनिषद कहते हैं की केवल आत्म ज्ञान ही हमें सुख दुःख के जंजाल से बहार निकल सकता है. तो फिर हमें एक और जीव तो इस मायाजाल में क्युओं बांधें? कुओं न हम इससे खुद को ही आज़ाद कर लें.
मेरी और मिताली की दोस्ती में धीरे धीरे ख़ामोशी और ईर्ष्या ने जगह ले ली। मिताली अपने करियर की सीढ़ियां जल्दी जल्दी चढ़ने लगी.
मैं तीन तीन डिग्रियां लेने के बावजूद भी उससे बहुत पीछे रह गई. रिश्तों के भी रेस में उससे कई कदम पीछे रह गयी.
उसके खूब दोस्त थे जिनके साथ वो पिक्चर देखने जाती या वीकेंड पर कभी शिमला तो कभी जयपुर।
मेरा मिताली के सिवा और कोई दोस्त नहीं थी। और लोगों से दोस्ती करने की कोशिश की पर वो ज़्यादा दिन टिक नहीं पायी ठीक मेरी नौकरी की तरह. नए दफ्तर में नए दोस्त बनाने की कोशिश करती पर वो नौकरी छूटते ही गायब हो जाते.
बस यही सब करते कुछ थक गयी और कुछ हार गयी. शादी भी न हो पाई थी . किसी न किसी वजह बात हर बार रह जाती.
पर मिताली के तो बहुत दोस्त थे. सुन्दर भी थी. हम तब भी रोज़ मिलते थे पर फिर कुछ दिन बाद लोगों से पता चला कि मिताली के घर अब कोई पुरुष उसके घर में आ कर कभी कभी रहता है. मिताली सब से यही कहती की मेरे ऑफिस में मेरे साथ मेरे ही प्रोजेक्ट में काम करता है. जब ऑफिस का काम ख़तम नहीं होता तो हम घर पर आकर खतम करते हैं.
पर इस बात पर भला कौन यकींन करता? बस चारो तरफ मिताली के करैक्टर को लेकर अलग अलग बातें शुरू हो गयीं.
मिताली की माँ उसके तलाक के कुछ बरस बाद ही गुज़र गयी थीं। एक छोटी बहिन थी जो शादी के बाद लंदन चली गयी थी. मिताली अब अकेली ही रहती थी.
मुझे यह सब सुन कर अच्छा न लगा पर मेरी माँ ने मेरा मिताली के घर आना जाना बंद कर दिया. मुझे इस बात का कतई बुरा न लगा की मिताली चरक्टेरलेस है. यह बात तो मेरे दिमाग भी कभी नहीं आयी. बुरा इस बात का लगा की मिताली ने मुझे कभी इसके बारे में जिक्र भी नहीं किया। और शायद इससे भी ज़्यादा इस बात का मिताली का कोई साथी बन गया पर मैं अभी भी वहीँ अकेली ज़िन्दगी से जूझ रही थी.
जब मितअली के करैक्टर को लेकर सब जगह चर्चे होने लगे तो वह घर छोड़ कर कहीं और रहने लगी. मैं एक दो बार उसके घर के सामने से गुज़री पर घर पर टाला लगा था. दो -तीन बार मैसेज किया पर उसका कोई जवाब नहीं आया. कॉल नहीं किया. कुछ मन न किया और कुछ हिम्मत नहीं हुई।
दस बरस तक उसकी कोई खबर नहीं आयी. कई बार मन में ख्याल आता कि कहाँ होगी और वो कैसी होगी ?
पर हिम्मत नहीं कर पायी उसको मैसेज या कॉल करने की. लगता कि कहीं न कहीं मैंने उसे धोखा दिया था. जब उसको मेरी सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी, तब मैंने उसका साथ नहीं दिया। या फिर यह ख्याल भी आता कोसने भी कौन सा मुझे कभी याद किया? अगर मैंने कॉल नहीं किया तो वो तो मुझे कॉल कर सकती थी?
यही लगता कि जहाँ भी होगी खुश ही होगी। क्या कमी थी उसको? सब कुछ तो था उसके पास, बढ़िया नौकरी और ढेर सारे मन बहलाने को दोस्त ?
मेरे पास क्या था? कुछ भी तो नहीं. अभी भी अपने माँ -बाप के घर पर रहती हूँ और एक मामूली सी नौकरी कर रही हूँ। मेरे पास क्या था. तीन चार महीने पहले पता चला की वह अब मिताली वापस अपने घर आ गयी है.
फिर अचानक एक दिन मेट्रो में मिली जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.
और आज पता चला, की उसको कैंसर हो गया था. आखिरी समय वो अपने घर पर ही बिताना चाहती थी. उसे स्तन कैंसर था, जानते हुए भी उसने अपना इलाज नहीं करवाया. पैसे की कोई समस्या नहीं थी. उसकी बहिन ने उसको लंदन आने के लिए भी कहा. पर उसने यह कह कर इंकार कर दिया के जब ऊपर जाने का समय आया है तो उसको स्वीकार कर लेना चाहिए। ज़िन्दगी से बहुत ज़्यादा संघर्ष करने की उसे अब आवश्यकता नहीं है.
यह तो पता नहीं कि उसने सही किया या गलत। शायद उसे अपना इलाज करवाना चाहिए था।
पर मेरे मन में यह बोझ हमेशा रहेगा कि मैं उससे बहुत कुछ कह सकती थी, पर कभी कह नहीं पायी.
कभी-कभी हम दूसरों को सिर्फ इसलिए छोड़ देते हैं कि एक कह नही पाता, दूसरा समझ नही पाता… इसलिये कहना चाहिये हर बात मन की फिर वो चाहे दूसरा समझे या नही…
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True
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Heart touching
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When you write in Hindi, is it possible for you translate into English as well, alongside?
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I think I can express myself best in my mother tongue. But I will certainly try!
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That I agree. Unfortunately I have always been poor in Hindi :p and hence the question/request.
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